Saturday, May 3, 2008

अनुशासन

अनुशासन भी बड़ी दिलचस्प चीज़ है। जापान की नफ़ासत, अनुशासन और तमीज़ का डंका सारी दुनिया में बजता है। स्वागत में झुक-झुक कर दोहरे होते, घर आए मेहमान के जूते पलट कर रखते जापानी, घंटो शंात क़तार में खड़े अपनी बारी आने का इंतज़ार करते जापानी, जापान की पहचान हैं। पर ऐसा अनुशासन भी किस काम का कि पेड़ झूम के मनमाना न फैल सके, कुत्ते का जब मन करे न भौंक सके। पेड़ बड़ा हो या छोटा उसे काट-छाँट कर कतर-ब्योंत कर ऐसे तराश देंगे कि देखना वाला कहे भई वाह! पर ज़रा पेड़ से भी तो पूछो कि भाई तुझे किधर जाना था । वैसे तो बच्चो को भी छूने से पहले पूछेंगे दाई जोबू यानि ठीक है न, और बेचारे पेड़ का कोई ह्यूमन राइट नहीं है। झट कैंची उठाई और कतर दिए उसके पर । मियाँ किधर चले, अपनी औक़ात में रहो। इधर-उधर पर मत फैलाओ। घर के आँगन में तुम्हें खड़ा तो होना है पर, हम जिधर-जितनी चाहेंगे उतनी ही शाखें फैलाने की इजाज़त है। आफ भले ही इसे अनुशासन और वृक्ष सौंदर्य कहें मैं तो इसे ग़ुलामी कहता हूँ। बन्दों पर बस नहीं चला तो पेड़ पौधों की लगाम कस दी। वो ठहरे बेचारे निरीह प्राणी। वैसे हम भारत वालों को परदेस में आकर अपने देश की जो सबसे पहली कमी खटकती है वो है पंक्चुएलिटि और डिसिप्लिन की कमी । जहाँ दो-चार भारतीय जमा हुए लगे बतियाने और धीरे- धीरे गरियाने कि देखो इस देश में सब कुछ कितना समय पर चलता है। हर काम में अनुशासन है। रेल हो, बस या टैक्सी हर जगह हर कोई कतार में खड़ा दिखाई देता है। पता नहीं ये इंडिया वाले कब सीखेंगे यह सब। ( जी हाँ ये भी खूबी है कि भारत से बाहर निकले नहीं कि वो भारत से इंडिया हो जाता है और हम इंडियन) जुम्मा-जुम्मा दो चार महीने ही बीते होंगे और परदेसी इंडियन खुद को उस इंडिया से बड़ी सफ़ाई से अलग कर लेते हैं जहाँ के लोग हिंदी बोलते हैं, टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ते हैं और यह नहीं जानते कि वक्त की पाबंदी और अनुशासन किस चिड़िया के नाम हैं। असल में हम बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि कल तक हम भी उन्हीं इंडियंस में शुमार थे जिनके लिए आईएसटी का मतलब इंडियन स्टैंडर्ड टाइम है, जो कालेज से दफ़्तर तक हर जगह देर से पहुँचना, पिच्च से सड़क चलते थूकना, रेल, बस में धक्का-मुक्की करना और राह चलते फ़ूल तोड़ना और अगर कुछ बस न चले तो ठोकर मारते चलना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं। परदेस में आकर जब विदेशी हमें मेहनती और अकलमंद कहते हैं तो खुशी में फूले नहीं समाते । वो तो हमारी निजी उपलब्धि होती है, उसमें अपने देश के पालन-पोषण का, गाँव-कस्बे के स्कूल और मास्टर जी का, उस पढ़ाई का कोई अंश नहीं होता जिसने हमें इस लायक़ बनाया कि परदेस में सिर उठाकर जी सकें। मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं समाती कि कौन से स्कूल में, कौन से मास्टर जी ने हमें यह सिखाया कि बेटा काम वक्त से मत करना, स्कूल देर से आना? ज़रा सा अपना गिरेबान में झाँक कर देखें तो समझ आएगा कि भारत को इनडिसिप्लिन्ड, नानसेन्स,डर्टी बनाने वाले भी हम ही हैं और परदेस में वक्त की पाबंदी और हर माहौल में ढल जाने की अपनी काबलियत का लोहा मनवाने वाले भी हम ही हैं। फ़र्क है तो सिर्फ़ सोच का।

2 comments:

Anonymous said...

अखिलजी,आपने खूब कहा "भारत को इनडिसिप्लिन्ड, नानसेन्स,डर्टी बनाने वाले भी हम ही हैं......" इसमें खता है हमारी लखनवी सोच की। अवध की मेहमान नवाज़ी की तर्ज पर हम पहले आप पहले आप करते रहते है। खुद पहल करने से घबराते है। साथ ही हम दूसरे को उपर उठता नहीं देख सकते। विदेश में जब हम अकेले होते हैं तो कहीं अलग थलग न पड़ जायें इस डर से वहां के माहौल में घुल मिल जाते हैं। इंफोसिस के नारायणमूर्ति ने ठीक ही कहा है कि हम भारतीय शायद पहले ऐसे लोग हैं जो अपने आप को पिछड़ा कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। जापान में अखिल मित्तल को उनकी प्रतिभा के आधार पर बुलाया गया है न कि उनकी जाति के आधार पर। जिस दिन हम हिन्दुस्तानी यह समझ जायेंगे कि दुनिया प्रतिभा का लोहा मानती है न कि किसी जाति या राज्य का उस दिन हम देस और परदेस दोनों में लायक बन जायेंगे। अंग्रेजी में एक कहावत है :There is a very thin line between success and failure. हम इस पतली रेखा को कैसे पार करते हैं यह हम पर निर्भर है।

मुनीश ( munish ) said...

very analytical indeed !