Saturday, June 26, 2010

न्यूज़ीलैंड में भारतीय मंदिर और गंगाजल

पिछले कुछ दिन दुनिया के दूसरे छोर न्यूज़ीलैंड में बिताए। वहाँ की शांति और अनछुई कुदरत ने तन-मन की बहुत सारी थकान मिटा दी। इसी बीच माँ का सातवाँ मासिक आया, जापान में रहते हुए तो पंडित और मंदिर  सहज उपलब्ध नहीं होते, इसलिए जब ऑकलैंड में मंदिर दिखा तो मन हुआ कि कुछ पूजा कराई जाए। हरिद्वार में पला-बढ़ा मन, कर्मकाँड के जाल से भलिभाँति परिचित है लेकिन वहाँ गुजराती पंडित जी ने जगह-जगह सौ-पचास की दक्षिणा रखवाए बिना शुद्ध मंत्रोच्चार के साथ सिर्फ पाँच फल और पेड़ों के साथ पूर्ण विधिविधान से तर्पण कराया कि  हम नत मस्तक हो गए।
सबसे अधिक आश्चर्य तब हुआ जब आचमनी में गंगाजल डाला गया। हम चौंके कि हमारी गंगा हज़ारों मील दूर तसमान सागर तट पर कैसे जा पहुँची। सोचा कोई आस्थावान भद्रजन गंगाजल ले आए होंगे। पर नहीं, ये गंगा जल गंगाजली में नहीं पॉलीपैक में  बंद था और यह पुण्यकार्य उत्तरकाशी की कोई कम्पनी कर रही है। आचमन लेते ही तन-मन हर-हर गंगे कर उठा और एक बार फिर मान गए कि पतित पावनी माँ गंगा की लीला अपरम्पार है।
एक और बात जो मन को भा गई वो ये कि  मंदिर का नामकरण किसी एक देवीदेवता के नाम पर नहीं है, द्वार पर लिखा है, भारतीय मंदिर, जहाँ आप  किसी भी इष्ट का ध्यान लगा सकते हैं। तब ध्यान आया कि हम भारत से बाहर हैं।
हर-हर गंगे।।

Wednesday, June 9, 2010

ओनसेन का स्वर्ग शियोबारा


क्यूशू के बेप्पू शहर में जापान के नरक यानि जिगोकु देखने और तप्त कुंड यानि ओनसेन का आनंद लेने के बाद मन प्रकृति की गोद में ओनसेन का आनंद लेने को मचल रहा था। कुछ व्यस्तता और कुछ जापानी भाषा की अज्ञानता ने कदम बाँधे रखे। फिर यकायक ईश्वर ने सुन ली। भला हो कुछ जापानी मित्रों का जो तोक्यो से दो घंटे के सफर पर ले गए। शुरु में आशंका थी कि न जाने अपनी मुराद पूरी होगी या नहीं, लेकिन शियोबारा पहुँचते ही सारी आशंकाएं आश्चर्य में बदल गईं।
आधी रात, बादलों से झाँकता पूनम का चाँद, पेड़ों का झुरमुट और पैरों के नीचे, धरती की कोख से निकलता तप्त जल। सोचा ऐसा स्वर्गिक आनंद भूतो न भविष्यति । पर कुदरत के खेल निराले, मानुस का अज्ञानी मन क्या जाने। हरित ग्राम की काठ की कॉटेज में रात कब कटी भान ही न हुआ। पर्वतों की गोद में बैठी घाटी में शीतल मंद पवन ने तन-मन ताज़ा कर दिया। 

कलकल बहती होकिगावा यानि झाड़ू  नदी के किनारे खड़े होते ही हरिद्वार में गंगा तट पर बीते बचपन के भोर के पल याद आ गए।
पहाड़ी पगडंडी पर सैर को निकले तो नदी की कलकल दहाड़ में बदलने से पहले तट पर ही तप्त जल उबलता दिखाई पड़ा। ज़रा सा आगे बढ़े तो बाँस और देवदार के आसमान छूते पेड़ों के बीच, कुछ भद्रजन आदिम अवस्था में तप्त कुंड में विश्रामित थे। पहले तो भारतीय मन कुछ सकुचाया फिर ध्यान आया कि इसी आदिम स्नान का आनंद लेने को तो हम तरस रहे थे। चार क़दम दूर पग स्नान की जगह देख क़दम प्यासे घोड़े की तरह अड़ गए। पाएँचे ऊपर चढ़ा कर आसन जमा लिया। लगा वर्षों की संचित थकान उस तप्त कुंड में तिरोहित हो रही है।

फ़ुर्सत से पग स्नान के बाद आगे बढ़े तो पहाड़ी की कोख से निकलते उबलते पानी से लबालब भरता एक और  तप्त कुंड दिखा जो नदी के ठिठुराते जल को चुनौती दे रहा था। संकोची मन दिन दहाड़े, सड़क किनारे अनावृत्त होने से कतरा रहा था। तय हुआ कि रात में आएँगे, फ़िलहाल घूम-फ़िर कर अपने हरित ग्राम में पेड़ों की आड़ वाले तप्त कुंड से ही संतोष किया जाए।
            घूमते-फ़िरते, एक पहाड़ चढ़े, नदी किनारे आकर्षक जापानी रेस्तराँ में जापानी भोजन का आनंद लिया और अपनी कुटिया की तरफ़ लौट चले। रास्ते में अहसास हुआ कि 30-40 मिनट के पैदल रास्ते में कोई दुकान, मॉल , बाज़ार और जापान की पहचान 24 घंटे खुला, सुविधा स्टोर भी नहीं मिला। कुछ आश्चर्य के साथ सुखद संतोष भी हुआ कि जापान में भी लोग इस सब के बिना जी लेते हैं।
            रात को खुले आसमान के नीचे नदी किनारे तप्त कुंड में स्नान का अरमान आलस्य की भेंट चढ़ गया लेकिन जापानी मित्र ने वायदा लिया की भोर होते ही चलेंगे। भोर हुई और हम निकल पड़े अपना अरमान पूरा करने। उस समय भी तप्त कुंड में चार-छः स्नानार्थी मौजूद थे। हमने भी सारे संकोच त्यागे और आदिम अवस्था में उतर गए तप्त जल में। धरती की कोख से उफनते निर्मल जल में गंधक की गंध भी आचमन लेने से नहीं रोक सकी। जल की धार से चट्टान के बीच बने गड्ढे को हमने  अपना बाथ टब बनाया और समाधि लगा ली।
            अब न आसपास से गुज़रते लोगों का संकोच रहा, न समय  का बोध। ये समाधि नहीं तो और क्या है ? समय का पहिया किसी समाधि के रोके नहीं रुकता। हमें भी उस कुंड से निकलना ही था, पर इस अनुभव से ये गुत्थी हमेशा के लिए खुल गई कि जापानी बंधुओं को तप्त कुंड यानि ओनसेन स्नान इतना प्रिय क्यों है और उस समय आदिम अवस्था में आना विचलित क्यों नहीं करता।
            असल में ये महसूस करने की बात है कहने-सुनने की नहीं। बड़ी पुरानी कहावत है कि आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता, पर हमने तो शियोबारा के नैसर्गिक ओनसेन में सदेह स्वर्ग का आनंद ले लिया।

Saturday, February 6, 2010

अमिताभ और मीडिया का रण

            रण में हैं अमिताभ। जी हाँ आप सही समझे रण फ़िल्म की रिलीज़ के साथ ही अमिताभ और उस मीडिया के बीच रण छिड़ गया है जिसने उन्हें महानायक जैसी पदवियों से महिमामंडित किया है।
          यहाँ एक बात साफ़ कर देना ज़रूरी है कि निजी तौर पर मैं अमिताभ बच्चन की अदाकारी का प्रशंसक हूँ लेकिन व्यक्तिगत परिचय न होने के कारण व्यक्ति अमिताभ’ पर कोई टिप्पणी करने का अधिकार मुझे नहीं है।  मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन हम आप जैसे ही एक आम इंसान हैं जिन्होंने हिंदी के एक नामी कवि के घर जन्म लिया और लाखों भारतीय नौजवानों की तरह फ़िल्म जगत का आकर्षण उन्हें मुम्बई ले गया। तमाम अभिनेताओं और कलाकारों की तरह अपने हिस्से का रण हारते-जीतते अभिनेता अमिताभ नाम और पैसा भी कमाते गए।
          हमारी-आपकी तरह उन्होंने भी अपने दोस्त चुने और अपने ढंग से उनका साथ निभाया। पैसा कमाने के लिए जो काम आता रहा करते गए।
          काँग्रेस की सांसदी हो या अमर-मुलायम मित्रता या ठाकरे संधि या फिर ताज़ा मोदी प्रकरण क्या हम यह नहीं मान सकते कि हमारी आपकी तरह अमिताभ बच्चन नाम के एक व्यक्ति ने अपने विवेक के आधार पर समय और काल में जो सही समझा किया।
          हमारे कुछ मित्रों को यह समस्या का सरलीकरण दिखेगा।
          प्रश्न यह है कि अमिताभ बच्चन ने किससे कहा था कि भईया हमें महानायक कहो। यह सारा जंजाल मीडिया का रचा था। जब वे मीडिया से नहीं मिलते थे तो शिकायत थे बहुत अकड़ू खाँ हैं।
          समझना यह होगा कि अमिताभ बच्चन हों या शाहरूख खान या आमिर खान ये सब तमाम अखबारों और टेलीविज़न चैनलों की तरह ही बाज़ार में खड़े कारोबार कर रहे हैं।
          अमिताभ बच्चन ने नरेन्द्र मोदी को ‘पा’ दिखाई तो साम्प्रदायिक हो गए, शाहरूख या आमिर ने जब आडवाणी जी या शीला जी के लिए अपनी फ़िल्मों के विशेष शो किए तो वे महान हो गए। अमिताभ बच्चन ने ठाकरे त्रयी से माफ़ी माँग ली या उन्हें बुज़ुर्ग कह दिया तो वे रीढ़विहीन हो गए, करन जौहर ने जब राज ठाकरे के घर जाकर माफ़ी माँगी थी तो अपना कारोबार बचाया था।
          हम और आप जब बच्चों को सिखाते हैं कि बेटा फ़लाँ से पंगा मत लेना या मौहल्ले के दादा की गली से दुबक कर गुज़रते हैं और उसका प्यादा भी सामने पड़ जाए तो खिसियाते हुए नमस्ते भाई जी कहते है, अथवा  स्कूल के दाखिले से लेकर रेल टिकट तक की लाइन से बचने के लिए अपने पत्रकार होने की धौंस दिखाते हैं या फ़िर दलाल को भईया पुकारते हैं तब हम निरीह होते हैं।
          मुझे लगता है कि मामला कुछ और है। रण फ़िल्म ने जिस तरह से मीडिया को स्टिंग  यानि दंश दिया है उसका घाव बहुत गहरा है।
          भईया अमिताभ ने यूपी में जुर्म कम होने का प्रचार करने वाले विज्ञापन किए तो उन्हें जनता को दिखाया किसने? दूरदर्शन को छोड़कर ऐसा कौन सा चैनल है जिसने उसे दिखाकर कमाई करने से इंकार किया । है कोई माई का लाल।
          अमिताभ तेल से लेकर चाकलेट तक सब बेचते दिखाई देते हैं पर दिखाता कौन है, छोटे बड़े हर टाक शो में अमरसिंह को बुलाता कौन है? अभी तक अमिताभ बच्चन या अमर सिंह ने तो कोई चैनल खोला नहीं है? क्या यह सच नहीं है कि किसी भी चैनल में नौकरी पाने की एक शर्त यह भी है कितने बड़े नेताओं या धन्ना सेठों के फ़ोन नम्बर आपके मोबाइल में हैं।
          लोग कहते हैं कि अमिताभ पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं । कल को सिगरेट का विज्ञापन भी कर लेंगे तो भईया अगर सरकार अनुमति दे दे तो क्या अखबार या चैनल वाले शराब और सिगरेट के विज्ञापन दिखाने से मना कर देंगे। क्या रेड एंड व्हाईट पीने वालों की बात ही कुछ और है जैसे विज्ञापन छापे नहीं जाते रहे हैं। क्या बैगपाइपर, किंगफ़िशर और रायल  स्टैग जैसे सुरा ब्राँड के छद्म विज्ञापनों से किसी चैनल को परहेज़  है। कौन मजबूर करता है आपको यह सब दिखाने के लिए अगर यह समाज के हित में नहीं है।
          सामना का सामाना रोज़ाना कितने पाठकों से होता है। उसमें किस ने कैसा ज़हर उगला है यह बता कर सामना का प्रचार कौन करता है शिवसेना या मीडिया।
          ये कैसी नैतिकता है कि हम कमाई के लिए चाहें जिस को स्टिंग कर दें। सच को जाने बिना बाप को बेटी का कातिल घोषित कर  सजा तजवीज़ कर दें। लोगों के घर और ज़िंदगी में ज़बर्दस्ती घुसे चलें जाएँ। वरिष्ठ पत्रकार के नाम सैंकड़ों सरकारी कमेटियों में शामिल हो उसी सरकार की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ़ उठाएँ जिसे सुबह शाम गलियाएँ। सरकारी खर्चे पर कवरेज के लिए जाएँ।
          लेकिन अगर अमिताभ बच्चन या शिवसेना या अमर सिंह  अपना कारोबार या नाम चमकाने के लिए जो सही समझें करे तो महानालायक कहलाएँ। वाह री नैतिकता!
           लेकिन जो मीडिया बाप के मरने पर बेटे से पूछता है- ‘आपको कैसा लग रहा है’ या स्टूडियो में बैठे नामी एंकर मुर्दनी के मौके पर मौजूद दूसरे नामी पत्रकार से पूछते है ‘वहाँ का माहौल कैसा है’, उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है।
          इस देश में मुद्दों और समस्याओं की कमी नहीं है पर उन्हें देखने-समझने की न किसी को फ़ुर्सत है, न समझ ।
          असल में हम भारतीयों या यूँ कहूँ कि इंसानों की फ़ितरत है कि पहले इंसान को देवता बनाते हैं, महिमामंडित करते हैं, मूर्तियाँ गढ़ते हैं फिर उन्हीं को तोड़ते हैं।
          ज़रुरत अमिताभ बच्चन या शिवसेना या भाजपा या मोदी को गलियाने की नहीं है। ज़रूरत इस बात की है कि वो जो कुछ कर रहें अगर हमें गलत लगता है तो उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रचार न करें। यूपी का जुर्म हो या गुजरात का पर्यटन कोई अमिताभ , कोई मोदी, कोई अमर सिंह इस देश की जनता को मुलायम नहीं कर सकता।  ये पब्लिक है सब जानती है।
          रण एक फ़िल्म है जिसमें फ़िल्मकार ने कुछ मुद्दे उछाले हैं, उनसे तिलमिलाने के बजाय उन का मंथन करने से गरल के साथ अमृत भी निकलेगा। व्यर्थ खम्भे नोचने से कुछ नहीं होगा।
          अमिताभ तेल बेचें या गुजरात, ये उनका धंधा है। अपुन को उनकी अदाकारी पसंद है सो पसंद है। अमिताभ ने समाज को विचार या दिशा देने का ठेका लेने का टेंडर कब भरा ?       

Thursday, December 31, 2009

बीता वर्ष


बीता वर्ष बेहद याद आएगा
जितना हमें दे गया, उतना ही या शायद उससे कहीं ज़्यादा ले गया
कुछ यादें संग ले गया तो शायद उतनी ही दे भी गया
बीते वर्ष ने जितना विनम्र होना सिखाया, उतना ही मन को मज़बूत करना भी सिखाया
पर इस बार ये जाते-जाते छीन ले गया उसे , जिसने हमें दिया जीवन
ये तन-मन
वो  जीवन भर पढ़ाती रही विनम्रता का पाठ
और जाते-जाते हम सभी को सिखा गई मन कड़ा करना
जय हो अम्मा






लो फिर आ गया नया साल

नववर्ष 2010
लो फिर आ गया नया साल
लेकर सपनों का जंजाल
कुछ सच्चे-कुछ झूठे,  कुछ पक्के-कुछ कच्चे,  कुछ रूठे-कुछ अपने
तो आइए नए साल के बहाने
देखें कुछ सपने हम और आप
कम होगा जगती का ताप, भूख, बीमारी और अभाव
मानव का दुख और संताप,  मिटेगा, है अगर कुछ पाप
सपने तो सपने हैं
भला सपनों से क्या मलाल
पूरे हों या  रहें अधूरे
इनके सहारे कट तो जाएगा
एक और नया साल।।
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Sunday, August 30, 2009

बैलेट से एक और सत्ता पलट


जापान में तूफ़ान और ज़लज़ले के साथ शुरू हुई ३१ अगस्त की तारीख राजनीति में भूकम्प लेकर आई। खत्म हुआ एलडीपी का सुनहरा राज और दूसरे महायुद्ध के बाद पहली बार पलट गई सत्ता। जनता ने निकम्मी, नाकारा, ढुलमुल और कमज़ोर के विशेषणों से अलंकृत डैमोक्रेटिक पार्टी को सौंप दी सत्ता की बागडोर। जीत के जश्न में न ढोल बजे न नगाड़े, मालाओं का ढेर भी नदारद था। विजेता दल के नेता और भावी प्रधानमंत्री युकिओ हातोयामा बस एक बार मुस्कुराए। जापान का ट्रेडमार्क विक्टरी साइन भी लापता दिखा। असल में उनके सिर पर भी सुपर बास ओज़ावा की तलवार है , जाने उन्हें गद्दी मिलेगी या ओज़ावा खुद विराजमान हो जाएँगे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के सिंहासन पर।
जय जनता जापान की।

Tuesday, May 19, 2009

मीडिया का राहुल राग


अगर भारत के पत्र-पत्रिकाओं और विशेषकर समाचार चैनलों पर नज़र डालें तो लगता है कि देश की सारी समस्याओं की एक ही जड़ है वंशवाद। अगर हम उस समस्या से मुक्ति पा जाएँ तो गरीबी, भ्रष्टाचार, बीमारी, लाचारी, काहिली और जहालत सबसे छुटकारा हो जाएगा। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ- मीडिया की चर्चाएँ सुनने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है।
आप पूछेंगे कि क्यों और कैसे? तो गौर से पढ़िए- 
लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान और उसके बाद भी सबसे अधिक चर्चा यही रही न कितने बेटों, भतीजों, चाचा-मामा, बीवी,बेटियों और बहुओं को टिकट मिले। और सबसे अधिक फ़ुटेज खाई मीडिया के युवराज राहुल गाँधी ने। मीडिया के इसलिए क्योंकि यह शब्द उसी ने जोड़ा है इस नाम के साथ। 
आरोप यह था कि काँग्रेस पार्टी के नेता और सदस्य राहुल के सामने साष्टाँग दंडवत करते हैं, उनका शब्द ब्रहम है वगैरह-वगैरह। अब एक चैनल के महालंगर ( एंकर की हिंदी शब्दकोश में लंगर ही तो है) के लिए तो राहुल के नाम के साथ जी लगाना भी चाटुकारिता की पराकष्ठा था। मतलब वो अपनी अंग्रेज़ी में मिस्टर लगाएँ या बाप-दादा की उम्र के मेहमानों का नाम लें तो शालीनता और शिष्टाचार लेकिन कोई हिंदी में जी लगाए तो चाटुकार। धन्य हैं आप।
राहुल की प्रेस कान्फ़्रेंस में जिस तरह जी-जी- या मिस्टर गाँधी की पुकार लग रही थी और उनकी एक नज़र पाने के लिए घमासान था या पूरे चुनाव में और उसके बाद भी जिस तरह राहुल नाम की माला जपी जा रही है उससे तो यही लगता है कि राहुल राग जनता और नेताओं से अधिक मीडिया के सिर चढ़ कर बोल रहा है।
अगर मीडिया वास्तव में वंशवाद को देश के लिए अभिशाप मानता है तो क्यों मुम्बई या राजस्थान के चुनाव में सिर्फ़ सिर्फ़ एक शहज़ादे की हार-जीत पर चर्चा होती रही। अगर मैं गलत हूँ तो हमारे तमामा महालंगर अपने आर्काइव टोटलकर बताएँ कि दो दिन में कितनी बार बताया कि मुम्बई कि बाकी सीटों पर कौन जीता- कौन हारा। पीलीभीत से उम्मीदवार शहज़ादे और उनकी अम्मा की जीत का समाचार तो कैमरे पर ही उनके फ़ोन से मिली सूचना के आधार पर दिया गया। शायद यह बताना भी तो ज़रूरी है कि वो शहज़ादे सीधे महाएंकर को फ़ोन करते हैं। अगर राहुल , प्रियंका, मिलिंद, जतिन, सचिन , अखिलेश या उमर  महज़ खानदानी नाम भुना रहे हैं तो लोकतंत्र के चौथे पाए के ये स्वनामधन्य पहरेदार क्यों उनकी गलबहियाँ के लिए आतुर रहते हैं, क्यों उनके मुँह से यह सुनकर छुईमुई हो जाते हैं कि आपको तो मैं जानता हूँ, या क्यों झाड़ तले दुबक कर मीठी-मीठी बतिया करते हैं। क्यों नहीं उन सबको इनके हाल पर छोड़ दिया जाता। क्यों पाठकों और दर्शकों को चौबीस घंटे इनके नाम की माला जपाई जाती है। 
क्या देश में मुद्दों और हस्तियों की कमी हो गई है। नहीं असल बात कुछ और है। मीडिया के दूसरे फ़ितूरों की तरह यह भी बेमानी फ़ितूर है, बल्कि खुद को इन राजवंशों की नज़रों मंे चढ़ाने की कवायद है। ज़िला परिषद से लेकर राज्य सभा तक की सदस्यता, सरकार की लाखों सलाहकार समितियों की सदस्यता, भारत-भारती से लेकर पद्म पुरस्कार तक का मोह भला किसे नहीं होता। 
अरे भइया जिस देश में लाला का बेटा लाला, किसान का बेटा किसान, डाक्टर का बेटा किसान, फ़ौजी का बेटा फ़ौजी, आईएएस का बेटा आईएएस, पत्रकार का बेटा पत्रकार बनना महज़ परम्परा नहीं संस्कार हो वहाँ राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा तो क्या प्रहलाद बनेगा। 
अब आप कहेंगे कि प्रजातंत्र में राजा कहाँ है, तो भइया रजवाड़े भले ही खत्म हो गए हों पर न समाज की सामंती सोच बदली है न हमारी-आपकी। और वैसे भी जब राजनीति फ़ुलटाइम पेशा बन गई हो बेटे-बेटी-बहुएँ भला और कहाँ दुकान लगाएँगे।
सच यह है कि हमारा मीडिया भी जो दिखता है वो बिकता है की मानसिकता से ग्रस्त और त्रस्त है। अगर हम अकल के ठेकेदार वाकई देश को वंशवाद की विषबेल से छुटकारा दिलाना चाहते हैं तो अच्छा यही होगा कि इन वारिसों को इनके हाल पर छोड़ दे और इनके नाम की माला जपने की बजाय कि इस चुनाव में कितने उम्मीदवार ऐसे चुने गए जिन पर कोई मुकदमा नहीं है, सांसदों से पूछे कि अपने इलाके के लिए उनका ब्लू प्रिंट क्या है।
अगर पाँच साल तक पाँच सौ तैंतालीस सांसदों की सालाना रिपोर्ट ली जाए तो चैनलों को गड्ढों में कैमरे लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। यकीन मानिए वो भी बिकेगा क्योंकि इस नंगे-भूखे देश को दूसरों को नंगा करने से अधिक मज़ा किसी खेल में नहीं आता।