Friday, April 18, 2008

हात्सुमोदे

वैसे तो जापान में नए वर्ष के चार महीने बीत रहे हैं, पर सोचा अपने नवसंवत्सर पर ही सही यहाँ के नववर्ष पर देव दर्शन की परंपरा की कुछ यादें संजोकर रख ली जाएँ।
असल में जापान आते ही नया वर्ष शुरु होने पर हात्सुमोदे यानी प्रथम दर्शन करने का अवसर मिला तो मुँहमाँगी मुराद पूरी होती लगी। इसके एक नहीं दो कारण थे । एक तो आस्तिक मन नए वर्ष में देव दर्शन की कल्पना मात्र से ही प्रफुल्लित हो उठा, दूसरे मन यह देखने को भी आतुर था कि आखिर यह प्रथम दर्शन है क्या? राजधानी तोक्यो से लगभग पचास किलोमीटर दक्षिण-दक्षिन पश्चिम में कानागावा प्रीफ़ैक्चर यानी कानागावा प्रांत में एक प्राचीन नगर है-कामाकुरा। तीन तरफ़ से पहाड़ों और एक तरफ़ से सागामि खाड़ी के निर्मल जल की प्राकृतिक पहरेदारी में संरक्षित कामाकुरा का जापान के इतिहास में एक बड़ा मुकाम है। कहते हैं, सन् १२५० में यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा नगर हुआ करता था। १२ वीं से १४ वीं शताब्दी तक यह नगर मिनामोतो शोगुन राजवंश का गढ़ और जापान की राजधानी रहा। इसी मिनामोतो राजवंश के संस्थापक शोगुन मिनामोतो योरितोगो ने अपने शासन के संरक्षण और सुख समृद्धि की कामना में यहाँ एक भव्य मंदिर बनवाया जिसे जापान की शिन्तो धार्मिक आस्था के अनुसार श्राइन कहा जाता है। शिन्तो परम्परा में कोई प्रतिमा नहीं होती। एक तरह से कह सकते हैं कि अमूर्त ईश्वर या सृष्टि ही आराध्य है। तो हमें भी देवदर्शन के लिए कामाकुरा के इसी सुप्रसिद्ध त्सुरुगाओका हाचिमान श्राइन में जाने का सौभाग्य मिला।
सुबह सवेरे शुद्ध तन-मन से साथियों के संग कामाकुरा स्टेशन पर उतरे। बाहर निकलते ही काफ़ी शाप और आसमान छूती इमारतों की तमाम आधुनिकता के बीच हवा में श्रद्धा की खुनकी थी। श्राइन तक पहुँचने का संकरा लेकिन बुहारा हुआ रास्ता, जापानी पारम्परिक हस्तशिल्प और भक्तजनों को लुभाने लायक सामान और खाने-पीने की चीज़ों की छोटी-छोटी दुकानों के एक-एक करते खुलते द्वार हरिद्वार से प्रयाग और वृंदावन से द्वारिका तक सभी तीर्थ नगरियों की याद ताज़ा करा गए। निर्मल सर्द हवा में अपनेपन की गंध टटोलते श्राइन के मुख्य द्वार तक कब पहुँच गए पता ही नहीं चला।
हस्तप्रक्षालन और आचमन के लिए जल कुंड में आता निर्मल जल, जगह-जगह टंगी मन्नत की तख्तियाँ और भाग्य बताती पर्चियाँ, एक पूजास्थल के द्वार पर एक कन्या को मनोकामनापूर्ति का आशीर्वाद देते धवल वस्त्रधारी पुजारी-पुजारिन, विशेष पूजा के लिए पर्चियों पर आवेदन करते भक्तजन देखकर लगा ही नहीं कि ये किसी दूसरे देश का पूजास्थल है। इतना ही नहीं पूजा प्रार्थना के बाद घर ले जाने के लिए वर्ष भर स्वास्थ्य, विद्या, कारोबार और यहाँ तक की सुरक्षित ड्राइविंग का भरोसा दिलाते टोटकों के साथ भविष्य बताने वाली पर्चियो की दुकानें और पेट पूजा के लिए रसीले जापानी व्यँजनों की महक से सराबोर खोमचे गंगा दशहरा से लेकर जन्माष्टमी और विजयदशमी जैसे तमाम मेलों की याद दिला गए।
आश्चर्य तब हुआ जब श्राइन के प्राँगण से सड़क पार मीलों दूर तक फैलती लाइन के बावजूद कहीं कोई आतुरता, कोई भगदड़, कोई हड़बड़ी नहीं दिखी। मेले की लकदक रौनक तो थी पर झूठे पत्तलों के ढेर और उन पर भिनभिनभिनाते मक्खियों के झुंड, झूठन पर लड़ते कुत्ते एवम् दूर तक पीछा करते भिखारी नदारद थे। तब अहसास हुआ कि यह जापान है अपना भारत महान नहीं।

2 comments:

Anoop said...

अखिल भाई,
झूठे पत्तलों के ढेर और उन पर भिनभिनभिनाते मक्खियों के झुंड, झूठन पर लड़ते कुत्ते एवम् दूर तक पीछा करते भिखारी नदारद थे.....चलो कहीं तो आपको अपने भारत महान की कमी खली। कल रविवार सुबह जब आदित्य के साथ एक मित्र के घर जाने के लिये गलत बस में चढ़ गए तो संवाहक ने बजाए गाली देकर चलती बस में से उतारने के हमें जहां जाना था वहां का मार्ग समझाया और गंतव्य के पास पहुंचने पर फिर एक बार फिर स्पष्ट किया। तो अपने देश में भी दो शहरों में जमीं आसमां का अंतर है तो फिर दो देशों की बात ही कुछ और है।

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया वर्णन ....आस्था के तीर्थ पर संस्कृतियों के अंतर को रेखांकित भी करता रहा आपका यायावर मन...यही दृष्टि भारतीयों को मिल जाए तो हमारे वितृष्णाकेन्द्र भी सचमुच आस्थाकेंद्र बन जाएंगे।
अगली किसी पोस्ट में जानना चाहूंगा कि जापानी व्यंजन खासतौर पर शाकाहारी, कैसे होते हैं ? भारतीय भोजन और जापानी भोजन की समानता, पाक-विधि, सामग्री आदि के बारे में । किसी खास डिश को बनाने की विधि क्योंकि मुझे खाना पकाने का शौक है।