Monday, May 26, 2008

रिश्ते

यूँ तो अब अपने देश में भी हिंदी में पढने लायक सामग्री मिलना दुर्लभ होता जा रहा है लेकिन परदेस में यह कमी कुछ ज्यादा ही खलती है। भला हो इस इंटरनेट नामी अविष्कार और इस पर उपलब्ध ईपेपर, ब्लाग्स और अनगिनत हिंदी वेबसाइट्स का जो इस प्यास को बुझाने के बजाय बढ़ाते जा रहे हैं, मतलब आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।
ऐसे ही किसी इंटरनेटी औज़ार की मदद से कोई दो महीने पहले कुछ पंक्तियाँ पढ़ने का संयोग हुआ तो ठगा सा रह गया। क्यों-कैसे यह जानने से पहले आप भी इनका पारायण कर लें।
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस , आधा डर थे बाबूजी।

60 से 80 –90 के दशक तक बड़ी हुई पीढ़ी के मेरे जैसे जीवों के लिए आलोक श्रीवास्तव(शायद यही नाम है लेखक का) की ये पंक्तियां जीवन का सार हैं। आज भी आम शहरों और कस्बों के नौजवान हथेली की सूजन और बाबूजी का रिश्ता समझते हैं। इस युग में बाबूजी जब डैड होते जा रहे हैं तब साहस और डर की इस गुत्थी को समझना और भी ज़रूरी हो जाता है। आगे की पंक्तियों में कवि ने अम्माऔर बाबूजी के रिश्ते की कड़वी पर सटीक तस्वीर खींची है।
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी।

घर में अम्मा की अहमियत और बाबूजी के ना रहने पर उनकी गति का ऐसा भुक्तभोगी वर्णन भी मैंने कहीं और नहीं पढ़ा है।
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा।
बाबूजी गुज़रे घर में सारी सोचें तकसीम हुईं,
मैं सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा।

पता नहीं आपको इन पंक्तियों ने कितना छुआ पर मुझे तो लगा कि नंगा तार छू लिया हो जैसे।

Saturday, May 3, 2008

अनुशासन

अनुशासन भी बड़ी दिलचस्प चीज़ है। जापान की नफ़ासत, अनुशासन और तमीज़ का डंका सारी दुनिया में बजता है। स्वागत में झुक-झुक कर दोहरे होते, घर आए मेहमान के जूते पलट कर रखते जापानी, घंटो शंात क़तार में खड़े अपनी बारी आने का इंतज़ार करते जापानी, जापान की पहचान हैं। पर ऐसा अनुशासन भी किस काम का कि पेड़ झूम के मनमाना न फैल सके, कुत्ते का जब मन करे न भौंक सके। पेड़ बड़ा हो या छोटा उसे काट-छाँट कर कतर-ब्योंत कर ऐसे तराश देंगे कि देखना वाला कहे भई वाह! पर ज़रा पेड़ से भी तो पूछो कि भाई तुझे किधर जाना था । वैसे तो बच्चो को भी छूने से पहले पूछेंगे दाई जोबू यानि ठीक है न, और बेचारे पेड़ का कोई ह्यूमन राइट नहीं है। झट कैंची उठाई और कतर दिए उसके पर । मियाँ किधर चले, अपनी औक़ात में रहो। इधर-उधर पर मत फैलाओ। घर के आँगन में तुम्हें खड़ा तो होना है पर, हम जिधर-जितनी चाहेंगे उतनी ही शाखें फैलाने की इजाज़त है। आफ भले ही इसे अनुशासन और वृक्ष सौंदर्य कहें मैं तो इसे ग़ुलामी कहता हूँ। बन्दों पर बस नहीं चला तो पेड़ पौधों की लगाम कस दी। वो ठहरे बेचारे निरीह प्राणी। वैसे हम भारत वालों को परदेस में आकर अपने देश की जो सबसे पहली कमी खटकती है वो है पंक्चुएलिटि और डिसिप्लिन की कमी । जहाँ दो-चार भारतीय जमा हुए लगे बतियाने और धीरे- धीरे गरियाने कि देखो इस देश में सब कुछ कितना समय पर चलता है। हर काम में अनुशासन है। रेल हो, बस या टैक्सी हर जगह हर कोई कतार में खड़ा दिखाई देता है। पता नहीं ये इंडिया वाले कब सीखेंगे यह सब। ( जी हाँ ये भी खूबी है कि भारत से बाहर निकले नहीं कि वो भारत से इंडिया हो जाता है और हम इंडियन) जुम्मा-जुम्मा दो चार महीने ही बीते होंगे और परदेसी इंडियन खुद को उस इंडिया से बड़ी सफ़ाई से अलग कर लेते हैं जहाँ के लोग हिंदी बोलते हैं, टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ते हैं और यह नहीं जानते कि वक्त की पाबंदी और अनुशासन किस चिड़िया के नाम हैं। असल में हम बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि कल तक हम भी उन्हीं इंडियंस में शुमार थे जिनके लिए आईएसटी का मतलब इंडियन स्टैंडर्ड टाइम है, जो कालेज से दफ़्तर तक हर जगह देर से पहुँचना, पिच्च से सड़क चलते थूकना, रेल, बस में धक्का-मुक्की करना और राह चलते फ़ूल तोड़ना और अगर कुछ बस न चले तो ठोकर मारते चलना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं। परदेस में आकर जब विदेशी हमें मेहनती और अकलमंद कहते हैं तो खुशी में फूले नहीं समाते । वो तो हमारी निजी उपलब्धि होती है, उसमें अपने देश के पालन-पोषण का, गाँव-कस्बे के स्कूल और मास्टर जी का, उस पढ़ाई का कोई अंश नहीं होता जिसने हमें इस लायक़ बनाया कि परदेस में सिर उठाकर जी सकें। मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं समाती कि कौन से स्कूल में, कौन से मास्टर जी ने हमें यह सिखाया कि बेटा काम वक्त से मत करना, स्कूल देर से आना? ज़रा सा अपना गिरेबान में झाँक कर देखें तो समझ आएगा कि भारत को इनडिसिप्लिन्ड, नानसेन्स,डर्टी बनाने वाले भी हम ही हैं और परदेस में वक्त की पाबंदी और हर माहौल में ढल जाने की अपनी काबलियत का लोहा मनवाने वाले भी हम ही हैं। फ़र्क है तो सिर्फ़ सोच का।

Friday, April 18, 2008

हात्सुमोदे

वैसे तो जापान में नए वर्ष के चार महीने बीत रहे हैं, पर सोचा अपने नवसंवत्सर पर ही सही यहाँ के नववर्ष पर देव दर्शन की परंपरा की कुछ यादें संजोकर रख ली जाएँ।
असल में जापान आते ही नया वर्ष शुरु होने पर हात्सुमोदे यानी प्रथम दर्शन करने का अवसर मिला तो मुँहमाँगी मुराद पूरी होती लगी। इसके एक नहीं दो कारण थे । एक तो आस्तिक मन नए वर्ष में देव दर्शन की कल्पना मात्र से ही प्रफुल्लित हो उठा, दूसरे मन यह देखने को भी आतुर था कि आखिर यह प्रथम दर्शन है क्या? राजधानी तोक्यो से लगभग पचास किलोमीटर दक्षिण-दक्षिन पश्चिम में कानागावा प्रीफ़ैक्चर यानी कानागावा प्रांत में एक प्राचीन नगर है-कामाकुरा। तीन तरफ़ से पहाड़ों और एक तरफ़ से सागामि खाड़ी के निर्मल जल की प्राकृतिक पहरेदारी में संरक्षित कामाकुरा का जापान के इतिहास में एक बड़ा मुकाम है। कहते हैं, सन् १२५० में यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा नगर हुआ करता था। १२ वीं से १४ वीं शताब्दी तक यह नगर मिनामोतो शोगुन राजवंश का गढ़ और जापान की राजधानी रहा। इसी मिनामोतो राजवंश के संस्थापक शोगुन मिनामोतो योरितोगो ने अपने शासन के संरक्षण और सुख समृद्धि की कामना में यहाँ एक भव्य मंदिर बनवाया जिसे जापान की शिन्तो धार्मिक आस्था के अनुसार श्राइन कहा जाता है। शिन्तो परम्परा में कोई प्रतिमा नहीं होती। एक तरह से कह सकते हैं कि अमूर्त ईश्वर या सृष्टि ही आराध्य है। तो हमें भी देवदर्शन के लिए कामाकुरा के इसी सुप्रसिद्ध त्सुरुगाओका हाचिमान श्राइन में जाने का सौभाग्य मिला।
सुबह सवेरे शुद्ध तन-मन से साथियों के संग कामाकुरा स्टेशन पर उतरे। बाहर निकलते ही काफ़ी शाप और आसमान छूती इमारतों की तमाम आधुनिकता के बीच हवा में श्रद्धा की खुनकी थी। श्राइन तक पहुँचने का संकरा लेकिन बुहारा हुआ रास्ता, जापानी पारम्परिक हस्तशिल्प और भक्तजनों को लुभाने लायक सामान और खाने-पीने की चीज़ों की छोटी-छोटी दुकानों के एक-एक करते खुलते द्वार हरिद्वार से प्रयाग और वृंदावन से द्वारिका तक सभी तीर्थ नगरियों की याद ताज़ा करा गए। निर्मल सर्द हवा में अपनेपन की गंध टटोलते श्राइन के मुख्य द्वार तक कब पहुँच गए पता ही नहीं चला।
हस्तप्रक्षालन और आचमन के लिए जल कुंड में आता निर्मल जल, जगह-जगह टंगी मन्नत की तख्तियाँ और भाग्य बताती पर्चियाँ, एक पूजास्थल के द्वार पर एक कन्या को मनोकामनापूर्ति का आशीर्वाद देते धवल वस्त्रधारी पुजारी-पुजारिन, विशेष पूजा के लिए पर्चियों पर आवेदन करते भक्तजन देखकर लगा ही नहीं कि ये किसी दूसरे देश का पूजास्थल है। इतना ही नहीं पूजा प्रार्थना के बाद घर ले जाने के लिए वर्ष भर स्वास्थ्य, विद्या, कारोबार और यहाँ तक की सुरक्षित ड्राइविंग का भरोसा दिलाते टोटकों के साथ भविष्य बताने वाली पर्चियो की दुकानें और पेट पूजा के लिए रसीले जापानी व्यँजनों की महक से सराबोर खोमचे गंगा दशहरा से लेकर जन्माष्टमी और विजयदशमी जैसे तमाम मेलों की याद दिला गए।
आश्चर्य तब हुआ जब श्राइन के प्राँगण से सड़क पार मीलों दूर तक फैलती लाइन के बावजूद कहीं कोई आतुरता, कोई भगदड़, कोई हड़बड़ी नहीं दिखी। मेले की लकदक रौनक तो थी पर झूठे पत्तलों के ढेर और उन पर भिनभिनभिनाते मक्खियों के झुंड, झूठन पर लड़ते कुत्ते एवम् दूर तक पीछा करते भिखारी नदारद थे। तब अहसास हुआ कि यह जापान है अपना भारत महान नहीं।

Sunday, April 6, 2008

नवसंवत्सर

नवसंवत्सर पे सभी बंधुओं को राम-राम
चैत्र प्रतिपदा का यह दिन शुभ और मंगल लाये बस यही कामना है
आजकल जहाँ का पड़ाव है वहाँ का पारंपरिक नववर्ष बड़ा अनूठा है।
आमतौर पर जापान में कैलेंडर से चलें तो सम्राट के राजगद्दी पर आसीन होने के दिन से कैलंडर आरंभ होता है। जैसे आजकल बीसवां वर्ष चल रहा है।
परन्तु जापान में नव वर्ष का उत्सव पहली जनवरी को ही मनाया जाता है। अपने देश से तुलना करें तो कह सकते हैं कि यह दीपावली जितना बड़ा पर्व है । घर क्या दफ्तर, दुकान सबकी सफ़ाई, रंगाईपुताई, सजावट , नए
कपड़े, नया खानापान , सब कुछ नया हो जाता । जी हाँ यहाँ पर्व में सुरापान का भी बड़ा महत्व है।

पहली जनवरी से चार पाँच दिन तक हर मन्दिर में गरमागरम ओसाके पीने का आनंद मिलता है तो लगता है जैसे शिवरात्रि में अपने हरिद्वार के बिल्वाकैश्वर महादेव के मन्दिर में चढाई गई ठंडाई का स्वाद आ गया हो। सजावट में सबसे अधिक ज़ोर दीर्घ आनंद , दीर्घ आयु , चिरंतंता पर रहता है। मतलब बांस के पोर्वे , चीड़ के पत्ते आडू के फूल यही सब होते हैं सजावट में। हाँ द्वार पर तोरण भी होता है, मूंज की रस्सी के
बीच में चीड़ के पत्ते या फूल लगा देते हैं, यह वर्ष चूहे का है सो मूषक राज भी खूब विराजमान रहे।
नववर्ष का सबसे प्रमुख उत्सव मन्दिर दर्शन होता है जिसका जापानी नाम है हात्सुमोदे।
हात्सू का अर्थ है प्रथम और मोदे का अर्थ है दर्शन । नववर्ष में हात्सुमोदे का पुण्य गंगा दशहरा को गंगा स्नान जैसा ही है। मैंने भी इस बार यह पुन्यलाभ प्राप्त किया है । समय मिला तो उसका कुछ अंश आपके संग भी बाँट
लूँगा।

एक बार पुनः नवसंवत्सर कि मंगलकामना
६-४-२००८