Tuesday, May 19, 2009

मीडिया का राहुल राग


अगर भारत के पत्र-पत्रिकाओं और विशेषकर समाचार चैनलों पर नज़र डालें तो लगता है कि देश की सारी समस्याओं की एक ही जड़ है वंशवाद। अगर हम उस समस्या से मुक्ति पा जाएँ तो गरीबी, भ्रष्टाचार, बीमारी, लाचारी, काहिली और जहालत सबसे छुटकारा हो जाएगा। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ- मीडिया की चर्चाएँ सुनने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है।
आप पूछेंगे कि क्यों और कैसे? तो गौर से पढ़िए- 
लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान और उसके बाद भी सबसे अधिक चर्चा यही रही न कितने बेटों, भतीजों, चाचा-मामा, बीवी,बेटियों और बहुओं को टिकट मिले। और सबसे अधिक फ़ुटेज खाई मीडिया के युवराज राहुल गाँधी ने। मीडिया के इसलिए क्योंकि यह शब्द उसी ने जोड़ा है इस नाम के साथ। 
आरोप यह था कि काँग्रेस पार्टी के नेता और सदस्य राहुल के सामने साष्टाँग दंडवत करते हैं, उनका शब्द ब्रहम है वगैरह-वगैरह। अब एक चैनल के महालंगर ( एंकर की हिंदी शब्दकोश में लंगर ही तो है) के लिए तो राहुल के नाम के साथ जी लगाना भी चाटुकारिता की पराकष्ठा था। मतलब वो अपनी अंग्रेज़ी में मिस्टर लगाएँ या बाप-दादा की उम्र के मेहमानों का नाम लें तो शालीनता और शिष्टाचार लेकिन कोई हिंदी में जी लगाए तो चाटुकार। धन्य हैं आप।
राहुल की प्रेस कान्फ़्रेंस में जिस तरह जी-जी- या मिस्टर गाँधी की पुकार लग रही थी और उनकी एक नज़र पाने के लिए घमासान था या पूरे चुनाव में और उसके बाद भी जिस तरह राहुल नाम की माला जपी जा रही है उससे तो यही लगता है कि राहुल राग जनता और नेताओं से अधिक मीडिया के सिर चढ़ कर बोल रहा है।
अगर मीडिया वास्तव में वंशवाद को देश के लिए अभिशाप मानता है तो क्यों मुम्बई या राजस्थान के चुनाव में सिर्फ़ सिर्फ़ एक शहज़ादे की हार-जीत पर चर्चा होती रही। अगर मैं गलत हूँ तो हमारे तमामा महालंगर अपने आर्काइव टोटलकर बताएँ कि दो दिन में कितनी बार बताया कि मुम्बई कि बाकी सीटों पर कौन जीता- कौन हारा। पीलीभीत से उम्मीदवार शहज़ादे और उनकी अम्मा की जीत का समाचार तो कैमरे पर ही उनके फ़ोन से मिली सूचना के आधार पर दिया गया। शायद यह बताना भी तो ज़रूरी है कि वो शहज़ादे सीधे महाएंकर को फ़ोन करते हैं। अगर राहुल , प्रियंका, मिलिंद, जतिन, सचिन , अखिलेश या उमर  महज़ खानदानी नाम भुना रहे हैं तो लोकतंत्र के चौथे पाए के ये स्वनामधन्य पहरेदार क्यों उनकी गलबहियाँ के लिए आतुर रहते हैं, क्यों उनके मुँह से यह सुनकर छुईमुई हो जाते हैं कि आपको तो मैं जानता हूँ, या क्यों झाड़ तले दुबक कर मीठी-मीठी बतिया करते हैं। क्यों नहीं उन सबको इनके हाल पर छोड़ दिया जाता। क्यों पाठकों और दर्शकों को चौबीस घंटे इनके नाम की माला जपाई जाती है। 
क्या देश में मुद्दों और हस्तियों की कमी हो गई है। नहीं असल बात कुछ और है। मीडिया के दूसरे फ़ितूरों की तरह यह भी बेमानी फ़ितूर है, बल्कि खुद को इन राजवंशों की नज़रों मंे चढ़ाने की कवायद है। ज़िला परिषद से लेकर राज्य सभा तक की सदस्यता, सरकार की लाखों सलाहकार समितियों की सदस्यता, भारत-भारती से लेकर पद्म पुरस्कार तक का मोह भला किसे नहीं होता। 
अरे भइया जिस देश में लाला का बेटा लाला, किसान का बेटा किसान, डाक्टर का बेटा किसान, फ़ौजी का बेटा फ़ौजी, आईएएस का बेटा आईएएस, पत्रकार का बेटा पत्रकार बनना महज़ परम्परा नहीं संस्कार हो वहाँ राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा तो क्या प्रहलाद बनेगा। 
अब आप कहेंगे कि प्रजातंत्र में राजा कहाँ है, तो भइया रजवाड़े भले ही खत्म हो गए हों पर न समाज की सामंती सोच बदली है न हमारी-आपकी। और वैसे भी जब राजनीति फ़ुलटाइम पेशा बन गई हो बेटे-बेटी-बहुएँ भला और कहाँ दुकान लगाएँगे।
सच यह है कि हमारा मीडिया भी जो दिखता है वो बिकता है की मानसिकता से ग्रस्त और त्रस्त है। अगर हम अकल के ठेकेदार वाकई देश को वंशवाद की विषबेल से छुटकारा दिलाना चाहते हैं तो अच्छा यही होगा कि इन वारिसों को इनके हाल पर छोड़ दे और इनके नाम की माला जपने की बजाय कि इस चुनाव में कितने उम्मीदवार ऐसे चुने गए जिन पर कोई मुकदमा नहीं है, सांसदों से पूछे कि अपने इलाके के लिए उनका ब्लू प्रिंट क्या है।
अगर पाँच साल तक पाँच सौ तैंतालीस सांसदों की सालाना रिपोर्ट ली जाए तो चैनलों को गड्ढों में कैमरे लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। यकीन मानिए वो भी बिकेगा क्योंकि इस नंगे-भूखे देश को दूसरों को नंगा करने से अधिक मज़ा किसी खेल में नहीं आता।

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