Wednesday, June 9, 2010

ओनसेन का स्वर्ग शियोबारा


क्यूशू के बेप्पू शहर में जापान के नरक यानि जिगोकु देखने और तप्त कुंड यानि ओनसेन का आनंद लेने के बाद मन प्रकृति की गोद में ओनसेन का आनंद लेने को मचल रहा था। कुछ व्यस्तता और कुछ जापानी भाषा की अज्ञानता ने कदम बाँधे रखे। फिर यकायक ईश्वर ने सुन ली। भला हो कुछ जापानी मित्रों का जो तोक्यो से दो घंटे के सफर पर ले गए। शुरु में आशंका थी कि न जाने अपनी मुराद पूरी होगी या नहीं, लेकिन शियोबारा पहुँचते ही सारी आशंकाएं आश्चर्य में बदल गईं।
आधी रात, बादलों से झाँकता पूनम का चाँद, पेड़ों का झुरमुट और पैरों के नीचे, धरती की कोख से निकलता तप्त जल। सोचा ऐसा स्वर्गिक आनंद भूतो न भविष्यति । पर कुदरत के खेल निराले, मानुस का अज्ञानी मन क्या जाने। हरित ग्राम की काठ की कॉटेज में रात कब कटी भान ही न हुआ। पर्वतों की गोद में बैठी घाटी में शीतल मंद पवन ने तन-मन ताज़ा कर दिया। 

कलकल बहती होकिगावा यानि झाड़ू  नदी के किनारे खड़े होते ही हरिद्वार में गंगा तट पर बीते बचपन के भोर के पल याद आ गए।
पहाड़ी पगडंडी पर सैर को निकले तो नदी की कलकल दहाड़ में बदलने से पहले तट पर ही तप्त जल उबलता दिखाई पड़ा। ज़रा सा आगे बढ़े तो बाँस और देवदार के आसमान छूते पेड़ों के बीच, कुछ भद्रजन आदिम अवस्था में तप्त कुंड में विश्रामित थे। पहले तो भारतीय मन कुछ सकुचाया फिर ध्यान आया कि इसी आदिम स्नान का आनंद लेने को तो हम तरस रहे थे। चार क़दम दूर पग स्नान की जगह देख क़दम प्यासे घोड़े की तरह अड़ गए। पाएँचे ऊपर चढ़ा कर आसन जमा लिया। लगा वर्षों की संचित थकान उस तप्त कुंड में तिरोहित हो रही है।

फ़ुर्सत से पग स्नान के बाद आगे बढ़े तो पहाड़ी की कोख से निकलते उबलते पानी से लबालब भरता एक और  तप्त कुंड दिखा जो नदी के ठिठुराते जल को चुनौती दे रहा था। संकोची मन दिन दहाड़े, सड़क किनारे अनावृत्त होने से कतरा रहा था। तय हुआ कि रात में आएँगे, फ़िलहाल घूम-फ़िर कर अपने हरित ग्राम में पेड़ों की आड़ वाले तप्त कुंड से ही संतोष किया जाए।
            घूमते-फ़िरते, एक पहाड़ चढ़े, नदी किनारे आकर्षक जापानी रेस्तराँ में जापानी भोजन का आनंद लिया और अपनी कुटिया की तरफ़ लौट चले। रास्ते में अहसास हुआ कि 30-40 मिनट के पैदल रास्ते में कोई दुकान, मॉल , बाज़ार और जापान की पहचान 24 घंटे खुला, सुविधा स्टोर भी नहीं मिला। कुछ आश्चर्य के साथ सुखद संतोष भी हुआ कि जापान में भी लोग इस सब के बिना जी लेते हैं।
            रात को खुले आसमान के नीचे नदी किनारे तप्त कुंड में स्नान का अरमान आलस्य की भेंट चढ़ गया लेकिन जापानी मित्र ने वायदा लिया की भोर होते ही चलेंगे। भोर हुई और हम निकल पड़े अपना अरमान पूरा करने। उस समय भी तप्त कुंड में चार-छः स्नानार्थी मौजूद थे। हमने भी सारे संकोच त्यागे और आदिम अवस्था में उतर गए तप्त जल में। धरती की कोख से उफनते निर्मल जल में गंधक की गंध भी आचमन लेने से नहीं रोक सकी। जल की धार से चट्टान के बीच बने गड्ढे को हमने  अपना बाथ टब बनाया और समाधि लगा ली।
            अब न आसपास से गुज़रते लोगों का संकोच रहा, न समय  का बोध। ये समाधि नहीं तो और क्या है ? समय का पहिया किसी समाधि के रोके नहीं रुकता। हमें भी उस कुंड से निकलना ही था, पर इस अनुभव से ये गुत्थी हमेशा के लिए खुल गई कि जापानी बंधुओं को तप्त कुंड यानि ओनसेन स्नान इतना प्रिय क्यों है और उस समय आदिम अवस्था में आना विचलित क्यों नहीं करता।
            असल में ये महसूस करने की बात है कहने-सुनने की नहीं। बड़ी पुरानी कहावत है कि आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता, पर हमने तो शियोबारा के नैसर्गिक ओनसेन में सदेह स्वर्ग का आनंद ले लिया।

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